उत्तराखण्ड
पहाड़ी गांवों और स्कूलों की बदहाली: एक दर्दनाक हकीकत,
उत्तराखंड ,,पहाड़ी क्षेत्रों की उस कड़वी सच्चाई को बखूबी बयान किया गया है, जहां जर्जर स्कूल भवन और वीरान गांव विकास की अनदेखी का प्रतीक बन चुके हैं। पूर्वजों की मेहनत से बने ये संस्थान आज खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं, जबकि राजनीतिक दल सिर्फ वोटबैंक के लिए चुनावी दांव खेलते हैं। मैदानी इलाकों में आलीशान बंगलों का जीवन जीते हुए, वे पहाड़ों के मूल मुद्दों—रोजगार की कमी, जंगली जानवरों का आतंक, खेती के साधनों की कमी—को नजरअंदाज कर देते हैं। युवा पीढ़ी मजबूरी में पैतृक गांव छोड़कर नौकरियों या कारोबार की तलाश में मैदानों की ओर रुख कर रही है, क्योंकि महंगाई और भौगोलिक चुनौतियां घर लौटने को नामुमकिन बना देती हैं।समस्याओं का विश्लेषणशिक्षा संस्थानों की स्थिति: स्कूलों की ये तस्वीरें बताती हैं कि बजट सिर्फ कागजों पर खर्च होता है, मरम्मत या आधुनिकीकरण पर नहीं। उत्तराखंड जैसे राज्यों में सैकड़ों ऐसे स्कूल बंद पड़े हैं, जहां कभी पढ़े-लिखे लोग निकले।प्रवासन का दर्द: सफलता पाने वाले पूर्व छात्र आज शहरों में बसे हैं, लेकिन गांवों को छोड़ना मजबूरी है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पहाड़ी जिलों से सालाना लाखों युवा पलायन करते हैं।राजनीतिक उदासीनता: नेता विकास खंडों का दौरा तो करते हैं, लेकिन स्थायी समाधान—जैसे पर्यटन, जैविक खेती या स्थानीय उद्योग—नहीं लाते। जंगली जानवरों से फसलें बर्बाद हो रही हैं, फिर भी सुरक्षा उपाय नाकाफी हैं।आर्थिक दबाव: महंगाई ने घर पर गुजारा कठिन कर दिया। कुछ मैदानी लोग स्वास्थ्य कारणों से पहाड़ लौट रहे हैं, लेकिन युवा पीढ़ी के लिए अवसर ही नहीं।ये हालात न सिर्फ सांस्कृतिक विरासत को मिटा रहे हैं, बल्कि पहाड़ों की पारिस्थितिकी को भी प्रभावित कर रहे हैं। सरकार को बजट के साथ जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी—जैसे स्कूलों का पुनर्निर्माण, रोजगार योजनाएं (MGNREGA को मजबूत बनाना) और वन्यजीव सुरक्षा।पहाड़ी गांवों का दर्द: जर्जर स्कूलों की तस्वीरें चीख रही हैंजब पहाड़ के स्कूलों की तस्वीरें देखता हूं, तो मन में एक टीस उठती है। इन जर्जर भवनों से शिक्षा पाकर आज कई लोग ऊंचे मुकाम हासिल कर चुके हैं, लेकिन गांव तो वीरान पड़े सन्नाटे में डूबे हैं। राजनीति का खेल ऐसा कि सिर्फ वोट चाहिए, विकास नहीं। सभी दल मैदानी बंगलों में ऐश करते हैं, पहाड़ी विधानसभाओं का जिक्र चुनावी मौसम तक ही।पूर्वजों ने इन स्कूलों की नींव रखी थी, उनकी आत्मा जुड़ी है, लेकिन आज हम सब पैतृक गांव भूल चुके। मैदानों में बस गए। कुछ मैदानी लोग डॉक्टरों की सलाह पर पहाड़ लौट रहे हैं, अपना सब छोड़कर। किंतु हमारी युवा पीढ़ी गांवों को ठोकर मार रही—नौकरी, कारोबार सब मैदानों में। गांव? कौन सोचे!भवन खंडहर बने पड़े हैं। कारण? महंगाई में पहाड़ों पर रोजगार ही नहीं। राजनीतिक दल वोट के लालच में एकाध दिन आते हैं। खेती के साधन नदारद, जंगली जानवर फसलें चराते हैं। सफलता सब चाहते हैं, इन स्कूलों से निकलकर पहचान बनाई, लेकिन भूगोल और राजनीति ने मजबूर कर दिया। बजट खर्च होता है, काम नहीं। कौन नहीं चाहता घर लौटना? महंगाई ने नामुमकिन कर दिया।अब समय है जागने का—स्थानीय रोजगार, स्कूलों का पुनरुद्धार, वन्यजीवों से सुरक्षा। वरना पहाड़ खाली हो जाएंगे!













