उत्तराखण्ड
सुबह का भूला शाम को घर लौटा
सुबह का भूला शाम को घर लौटा
भुवन चन्द्र जोशी
भारतीय राजनीति में भी हमेशा अनूठे खेल खेले जाते हैं। एक मुहावरा है कि सुबह का भूला शाम को घर लौटे तो उसे भूला नहीं कहा जाता। राजनीति में यह मुहावरा अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। एक दल में मलाई खाने के बाद दूसरे दल में शामिल होना और फिर वहां सत्ता सुख का पूर्ण उपभोग कर फिर अपने ही दूसरे दल में लौट आने पर नेताओं द्वारा अक्सर यह कहा जाता है कि सुबह को भूला शाम को घर लौट आया। ऐसा ही वाक्या उत्तराखंड की राजनीति में विगत दिनों देखने को मिला। लगभग साढ़े चार साल पहले राजनेता के रूप में जाने जाने वाले एक नेताजी अपने पुत्र के साथ टहलते हुए रास्ता भटक गये और ऐसे में जा पहुंचे जहां भगवा की जबरदस्त आंधी चल रही थी। भगवा झंडे वालों ने भी पिता-पुत्र को सर आंखों पर बिठाया और उन्हें पूरा सम्मान देते हुए सत्ता सुख की चॉबी सौंप दी। साढ़े 4 वर्ष तक पिता-पुत्र जमकर सत्ता सुख की मौज उठाते रहे और साढ़े 4 साल बाद अचानक जब उनकी आंख खुली तो उन्हें अपना घर याद आ गया और फिर से पिता-पुत्र जो अपने निहित स्वार्थों के कारण दूसरे खेमे जा पहुंचे ो और स्वार्थों की पूर्ति होते ही उन्हें अपने घर की जगमगाहट दिखाई देने लगी और वे दौड़ कर अपने घर के अन्दर जा पहुंचे। वहां उन्हें अपने पुराने परिचित मिले, जिनमें से कई उनके धुरविरोधी भी थे। जैसे कि कहावत है कि डूबते को तिनके का सहारा ऐसे में अपने विरोधी को भी घर लौटे देखकर उनकी भी बांछे खिल उठी और उन्होंने बड़े ही उत्साह के साथ पिता-पुत्र को गले लगाते हुए उनकी जय जयकार कर उन्हें फूलमालाओं से लादते हुए उनकी तारीफ में कई कसीदें तक पढ़ डाली। पिता-पुत्र भी जो अभी तक भगवा के साये में सांस ले रहे थे घर वापसी पर जश्न मनाने लगे। क्योंकि उन्होंने भगवा में रहते हुए अपने स्वार्थों की पूरी प्रकार से पूर्ति कर डाली थी। तथा उन्हें अब किसी जांच का भी भय नहीं रह गया था। जिसके लिए उन्हें भगवा खेमे की ओर दौड़ लगानी पड़ी थी। कहा भी जाता है नेताओं का कोई ईमान नहीं होता है। अत: इधर से उधर आने जाने में उन्हें कोई लोक लज्जा भी नहीं आती है और वह ह कहते हुए जनता से माफी मांग लेते हैं कि वहां उनका दम घुट रहा था। घर वापसी कर उन्हें बड़ी शांति मिली है।