उत्तराखण्ड
नेपाल के इतिहास का सबसे रक्तरंजित अध्याय।,
वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर बेंजावल ,,
रक्तपात नेपाल के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है। आज ही के दिन यानी 14 सितंबर की बात है। वर्ष था 1846 ई.। नेपाल के सिंहासन पर राजा राजेंद्र विक्रम शाह थे। राजदरबार में शक्ति का केंद्र बनने के लिए दरबारियों के बीच आंतरिक सत्ता संघर्ष चल रहा था। इसी आंतरिक सत्ता संघर्ष में लिखा गया नेपाल के इतिहास का सबसे रक्तरंजित अध्याय।
उस दिन शाही ठाठ-बाट से राजदरबार चल रहा था। इसी बीच जंग बहादुर कुंवर नाम के महत्वाकांक्षी दरबारी ने अपने दस्ते को इशारा किया और कुछ ही देर में दरबार में 40 उच्चपदस्थ दरबारियों की लाशें बिछी पड़ी थीं। खून की नदी बह निकली। नेपाल के इतिहास में इस घटना को कोट नरसंहार के नाम से जाना जाता है।
नेपाली समाज में राजा को ईश्वर का अवतार माना जाता था। इसलिए जंग बहादुर स्वयं को राजा घोषित करने का दुस्साहस नहीं कर सका। उसने राजा को नजरबंद कर, स्वयं को प्रधानमंत्री घोषित किया और इस पद को वंशानुगत कर दिया। खुद के लिए राणा की उपाधि सृजित की- जंगबहादुर राणा। यहीं से जन्म हुआ राणा शासन का। एक ऐसा क्रूर व अत्याचारी शासन, जिसने शाह वंश के राजाओं को कठपुतली बनाकर 105 वर्षों तक नेपाल को अपने शिकंजे में जकड़े रखा।
जंगबादुर राणा से शुरू हुई राणाशाही में 1951 तक नौ राणा हुए। इनमें से पांचवें थे-चंद्र शमशेर बहादुर राणा। 1901 में पद पर बैठे और 1929 तक बने रहे। क्रूर राणा प्रधानमंत्रियों के बीच हम चंद्र शमशेर को वैसे ही ले सकते हैं, जैसे भारत में ब्रिटिश शासन की क्रूरताओं के बीच लॉर्ड रिपन के शासनकाल को उदारवादी काल कह देते हैं। नेपाल में चंद्र शमशेर का सबसे बड़ा योगदान दास प्रथा का अंत था। नेपाल की उच्च कुलीन जातियां दलित-वंचित जाति के लोगों को दास बनाकर उन पर अमानवीय अत्याचार करती। चंद्र शमशेर ने इस दासत्व का अंत कर दिया।
चंद्र शमशेर उदार प्रवृति के तो थे, लेकिन ऐश्वर्यशाली जीवन के आदी भी। अंग्रेजों से दोस्ती थी तो उनकी तरह बनना और रहना चाहते थे। इंग्लैंड गए तो अपने लिए बर्मिंघम पैलेस से भी बड़ा महल बनाने का ख्याल मन में आया,ताकि दुनिया भर में नेपाल के राणा की भव्यता की धाक जमे। योजना पर काम शुरू हुआ। किशोर नरसिंह गुरुंग नामक एक नेपाली को इसका डिजायन बनाने का काम सौंपा गया। इस डिजायन के आधार पर 1903 में काठमांडू में 7 एकड़ जमीन पर यूरोपीय स्थापत्य की न्यू क्लासिकल और बारोक शैली का 1200 कमरों वाला भव्य महल बनना शुरू हुआ।
उस जमाने में यह महल 30 लाख नेपाली रुपयों में बना था। तब नेपाल का वार्षिक राजस्व भी इतना न था। इस विशाल महल में 1,200 कमरे बनाए गए। 20 से अधिक भव्य प्रांगण और एक विशाल हॉल, अलंकृत दरबार, भव्य बॉलरूम, ग्रंथालय बनाए गए। इन्हें यूरोपीय साज-सज्जा- संगमरमर से बनी सीढ़ियां, विशाल झूमर, काँच की खिड़कियां और यूरोपीय फर्नीचर से सुसज्जित किया गया। उस समय नेपाल में अकेले इसी महल में ही बिजली, टेलीफोन, पानी की आधुनिक व्यवस्था थी। यहां तक की राजपरिवार का निवास नारायणहिती महल भी इन सुविधाओं से वंचित था। यह दरबार राणा शासन की शेर जैसी ताकत को दर्शाने के लिए बनाया गया था और इसे नाम दिया गया- सिंह दरबार।
स्थानीय और भारत के बिहार व राजस्थान प्रांत से बुलाए गए तीन हजार कारीगरों व श्रमिकों (लकड़ी, संगमरमर, नक्काशी, लोहे व काँच का काम करने वाले) के कौशल व परिश्रम से एशिया का यह सबसे बड़ा महल तीन वर्ष में यानी 1905 में बनकर पूरा हुआ। ऐसे कोई आधिकारिक दस्तावेज तो मौजूद नहीं, लेकिन अब से कुछ दशक पूर्व बुजुर्गों की याददाश्त में ये दर्ज था कि महल में राणा परिवार के प्रथम बार प्रवेश पर भव्य समारोह का आयोजन किया गया था।
हर अति का अंत होता है। राणा शासन के अत्याचार से कराहता नेपाल 1940 के दशक के अंत तक लोकतंत्र मांगने लगा। भारत की आज़ादी से प्रेरित होकर नेपाली कांग्रेस और अन्य राजनीतिक समूह राणा शासन को समाप्त करने के लिए सक्रिय हो गए। लोकतंत्र की बढ़ती मांग को देख 1950 में तत्कालीन राजा त्रिभुवन शाह को भी बल मिला और उन्होंने भारत आकर शरण ले ली। उन्हें भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आधिकारिक निवास तीन मूर्ति भवन में रुकवाया गया। बाद में उन्होंने इंग्लैंड में शरण ली। पूरे नेपाल में जन-आंदोलन भड़क उठा। पं.नेहरू की मध्यस्थता के बाद फरवरी 1951 में राजा त्रिभुवन शाह, मोहन शमशेर जंग बहादुर और नेपाली कांग्रेस के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। समझौते के तहत राणा शासकों का निरंकुश शासन समाप्त हो गया। नेपाल में पहली बार अंतरिम लोकतांत्रिक सरकार बनी, जिसमें राजा और जनता दोनों की भूमिका स्वीकार की गई। सिंह दरबार से राणा परिवार की विदाई हो गई और यह नई लोकतांत्रिक सरकार का प्रशासनिक मुख्यालय बन गया।
राणा शासकों द्वारा बनवाया गया सिंह दरबार 1951 से पूरा सीना तान कर लोकतांत्रिक सत्ता का केंद्र बन कर खड़ा था। इस बीच 9 जुलाई 1973 सिंह दरबार में भीषण आग लगी, जिसने इसके बड़े हिस्से को निगल लिया। हालांकि इसकी आत्मा बची रही। 2015 नेपाल के भूकंप ने इसकी बुनियाद हिला दी, पर महल फिर भी डटा रहा। 2007 तक नेपाल की संसद यहीं चलती रही, जब तक कि उसे नए भवन (नया बानेश्वर) में स्थानांतरित नहीं कर दिया गया।
इतिहास ने फिर करवट ली। इस सप्ताह हुए जनरेशन जेड के विद्रोह के गुस्से का सबसे ज्यादा शिकार सिंह दरबार ही बना,क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय और मंत्रियों के दफ्तर इसी महल में थे। मीडिया रिपोर्टों के मुतबिक सिंह दरबार में स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय और मंत्रिपरिषद कार्यालय पूरी तरह से जला दिए गए। गृह मंत्रालय,ऊर्जा, जल संसाधन एवं सिंचाई मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, शिक्षा एवं विज्ञान-प्रौद्योगिकी मंत्रालय, संघीय मामले एवं सामान्य प्रशासन मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं जनसंख्या मंत्रालय, भौतिक संरचना और परिवहन मंत्रालय की इमारतों को काफी क्षति पहुंचाई गई। अधिकांश मंत्रालयों के कार्यालय-कक्षों में आग, तोड़फोड़,लूट की घटनाएं हुईं। नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (यूएमएल) के पार्टी कार्यालय पूरी तरह तबाह कर दिए गए।| परिसर में खड़े लगभग 1000 से अधिक वाहनों को तोड़-फोड़ कर जला दिया गया। उपद्रवी भीड़ कई कार्यालयों के कंप्यूटर, प्रिंटर, लैपटॉप, कुर्सियां लूट कर ले गई।
हिंसक उपद्रव की आग में जले सिंह दरबार की दीवारों से अभी तक धुआं उठ रहा है। इस पर नेपाल की सांस्कृतिक विरासत के पैरोकार हृषव राज जोशी कहते हैं- सिंह दरबार को जलते देखना दिल दहला देने वाला है। हमने केवल ईंट-पत्थर नहीं खोए, बल्कि अपने अतीत की अनमोल धरोहर और स्मृतियां भी राख में मिला दीं।
जिस सिंह दरबार ने नौ राणाओं की निरंकुश और ऐश्वर्यपूर्ण सत्ता देखी, बाईस प्रधानमंत्रियों के उत्थान और पतन का साक्षी बना, उसका इतिहास यही कहता है—यह प्रांगण शक्ति, वैभव, रक्त और लोकतंत्र, सबके पदचिह्नों से भरा पड़ा है। पर सत्य यही है कि इतिहास का हर स्मारक एक दिन राख में बदल जाता है। सत्ता और ऐश्वर्य क्षणभंगुर हैं, इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी गलतफहमी में न रहे।
साभार,,
















