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उत्तराखण्ड

जो चीन हुणी हमूलं भाई- भाई कौछ रेओ हमरि छाती मणि बंदूक धरनोछ रे,,

हल्द्वानी ,,,उत्तराखंड के कालजयी साहित्यकार – शैलेश मटियानी ( 24 वीं पुण्यतिथि पर विशेष ) में प्रोफेसर अरविन्द कुमार ( मौर्य ) अनंत की कलम से शैलेश मटियानी को याद किया गया,,,

हिमालय के सुरम्य वातावरण में अवस्थित उत्तरखण्ड राज्य अपनी स्थापना से पूर्व से ही इस देश का एक प्रसिद्ध भू – भाग रहा है, जहाँ एक ओर सनातन धर्मावळम्बीयो के प्रसिद्ध चारधाम गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ विशाल तथा केदारनाथ स्थित है जो की हिन्दू आस्था के प्रमुख केंद्र है तो दूसरी ओर हिमालय से गंगा, यमुना, जैसी कई छोटी बड़ी नदियाँ भी प्रवाहित होती है जो भारत के एक बड़े भू- भाग को ना सिर्फ सिंचित करती है अपितु एक विशाल जनसंख्या की प्यास भी बुझाती है l जलधारा के सामान ही साहित्य की भी एक सतत धारा प्राचीन काल से ही हिमालय के इस पवित्र इस भू – भाग से प्रवाहित होती रही है जिसमें अनेक उत्तराखंडी साहित्यकारों का योगदान रहा है, ऐसे ही एक प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रमेश चन्द्र मटियानी ‘ शैलेश ‘ जो कालांतर में शैलेश मटियानी के नाम से प्रसिद्ध हुए का जन्म कुमायूँ अंचल के अल्मोड़ा जनपद के बाड़े छीना गांव के एक संपन्न माध्यवर्गीय परिवार में हुआ था, जो अल्मोड़ा से लगभग16 किलोमीटर दूर सूयाल नदी के किनारे स्थित है।शैलेश मटियानी के पिता विशन सिंह मटियानी व बाबा जीत सिंह मटियानी थे।इनके बाबा घी के प्रसिद्ध व्यापारी थे जिनके विषय में यह कहावत प्रसिद्ध थी कि “जितुवा को बोल,तगड़ी को तौल ” अर्थात जीत सिंह के मुख से कहा हुआ तराजू के तौले हुए के बराबर होता है।इनके पूर्वज बाड़े छीना से लगभग10 किमी दूर मटेला गांव के निवासी थे जिसके कारण इन्हें भटियाणी कहा जाता था जो आगे चलकर मटियानी हो गया।
शैलेश के 9वर्ष की अवस्था मे ही इनके पिता ने एक ईसाई महिला से विवाह कर लिया था तथा उसके साथ बाड़े छीना से लगभग50किमी दूर बेनीनाग के पास रहने लगे थे इसी बीच इनकी मां को स्तन कैंसर हो गया था जिसकी देखभाल व मवाद से भरे कपड़े धोने का भार भी बालक रमेश पर आ पड़ा था। 14 वर्ष का होते होते रमेश के सर से माता पिता दोनों का साया उठ चुका था और इस छोरमूल्या जीवन का सहारा दादा दादी रह गए थे जो इनके चाचा शेर सिंह के साथ रहते थे। छोरमूल्या तीनों बालक(छोटा भाई, बहन, और रमेश मटियानी) अपने चाचा सुंदर सिंह के साथ रहने लगे थे ।उस समय घर में 2नौकर रहा करते थे रमेश की हैसियत तीसरे नौकर की हो गई थी। सुबह उठ कर ‘नौल ‘ से पानी भरना, भैसों को दुहना, गोठो का गोबर और घास पूस साफ करके, फिर कुल्हाड़ी दराती के साथ जंगलों में भैसों के साथ निकल जाना, शाम को लौटते समय लकड़ी या घास का गट्ठर सिर पर लाना इनकी दिनचर्या का हिस्सा हो गया था । ऐसे में स्कूल जाना मटियानी जी के लिए एक दीवास्वप्न के सामान हो गया था वों अकसर बकरियों को चराते हुए स्कूल जाते बच्चों को बड़ी हसरत से देख करते थें ऐसे ही एक घटना को याद करते हुए मटियानी जी अपने बारे में लिखते है की ” कमर में कुल्हाड़ी बांधे एक बालक स्कूल के बगल में अपनी भेड़ बकरियो को चरा रहा है पर उसका ध्यान भेंड़ बकरियों पर कम स्कूल के खुले मैदान में ज्यादा लगा हुआ है जहाँ अध्यापक एक बच्चे को पहाड़ा रटाने का प्रयास कर रहे हैं पर वह बालक बार बार भूल जा रहा है।उसको पहाड़ा भूलते देख वह बालक स्वयं बुदबुदाने लगता है तभी बगल से गुजर रहे स्कूल के प्राध्यापक की नजर बालक पर पड़ती है और वो बालक के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछते हैं- क्यों तुम्हारी भी पढ़ने की इच्छा होती है? उनके ऐसा कहने से ही बालक फूट फूट कर रोने लगता है रोता हुआ यह बालक कोई और नहीं हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी थे और प्रधानाध्यापक ने उनके प्रथम गुरु लक्ष्मण सिंह गैलाकोटी ।
गांव से मिडिल परीक्षा पास करने के उपरांत इंटर मीडिएट के लिए ये अल्मोड़ा आ गए और अपने चाचा बहादुर सिंह के साथ रहने लगे थे जो उस समय अल्मोड़ा में गोश्त का व्यापार किया करते थे।यहाँ आकर भी रमेश के जीवन में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया अब भी दोनो भाई अपने चाचा का सहयोग किया करते थे, रमेश जहाँ प्रातः काल दो तीन बकरियों की खाल निकाल कर, उनकी आंत धोकर तथा गोश्त दुकान में लगाकर विद्यालय जाया करते थे और विद्यालय से आने के बाद पुनः गोश्त की दुकान पर बैठा करते थे वहीं छोटा भाई रामजे स्कूल के बाहर दिनभर चूरन और मूगफली बेचा करता था ।
साहित्य लेखन की प्रेरणा शैलेश जी को सर्वप्रथम अल्मोड़ा में ही प्राप्त हुई थी, इनके चचेरे भाई नेवी में थे और उनकी कविताएं नेवी की पत्रिकाओं में छपा करती थी जिसे छुट्टियों में वे साथ लेकर आते थे जिसे देखकर रमेश सर्वप्रथम काव्य रचना की ओर प्रेरित हुए दूसरे महत्वपूर्ण प्रेरक इनके मित्र कुँवर तिलारा भी थे जिनकी कविताएं उस समय ” शक्ति और कुमाऊँ राजपूत ” नामक स्थानीय पत्रो में प्रकाशित हो रही थीं। इस समय रमेश कक्षा 9के विद्यार्थी थे तथा साहित्य रचना में अपना नाम रमेश चंद्र मटियानी “शैलेश “लिखने लगे थे। कई बार प्रयत्नों के बाद भी जब इनकी रचनाएं स्थानीय पत्रों में प्रकाशित नहीं हो पायी तो इन्होंने अपनी रचनाएं दिल्ली में ” रंगमहल ” और ” अमर कहानी ” को भेजी , जिन्होंने इनकी दो कहानियां ” शांति ही जीवन है ” व ” संघर्ष के क्षण ” प्रकाशित की । 1951 में हाईस्कूल परीक्षा पास करने के उपरांत अल्मोड़ा में अपना कोई साहित्यिक भविष्य ना देखकर मटियानी जी अपने चाचा के घर से चुराये घी को 20 रुपये में बेचकर व भाई को रामजे स्कूल के बाहर मुंगफली और चूरन बेचता छोड़कर एक नयी मंजिल की खोज में निकल पड़े ।
लेखक बनने की इस यात्रा में मटियानी जी हल्द्वानी से रानीखेत होते हुए नवंबर 1951 में दिल्ली में रंगमहल के संपादक ओम प्रकाश गुप्त के पास पहुँचे जो इन्हें पत्रों और रचनाओं के माध्यम से जानते थे । जिन्होंने इन्हें एक दुकान पर रखा दिया पर इनका मन यहाँ भी ना लगा और उस समय की साहित्यिक राजधानी इलाहाबद जाने को तैयार हो गए , टिकट खर्च हेतु लाल किले के बगीचे में बैठकर अपना पहला उपन्यास ” दोराहा ” तीन दिनों में पूर्ण कर लिया जिसे ओमप्रकाश जी को 15 रु में बेचकर इलाहाबाद की ट्रेन में बैठ गए । इलाहाबाद में इनकी मुलाकात ” माया ” पत्रिका के उपसंपादक कवि शमशेर से हुई जिन्होंने इनके रहने खाने की व्यवस्था की पर यह भी जीवन यापन की उचित व्यवस्था ना देखकर मुजफ्फरनगर , दिल्ली होते हुए अगस्त 1952 में आप बम्बई चले गए जहाँ आप लगभग 7 साल तक रहे । बम्बई प्रवास के यह 7 साल मटियानी जी के जीवन संघर्ष और साहित्यिक उदय का समय रहा । जीवन के लिए संघर्ष करते हुए इन्होंने जहाँ फुटपाथों पर रात बिताई , अपना खून बेचा , भीख मांगी वही लगभग साढ़े तीन साल तक स्टेशन के बाहर चन्नी रोड़ पर स्थित श्री कृष्ण पूरी हाउस पर कार्य करते समय अपनी अधिकांश कविताएं व दो प्रसिद्द उपन्यास ” बोरीवली से बोरीबंदर ” व ” कबूतरखाना ” का लेखन कार्य भी किया ।1957 में मटियानी जी का विवाह अल्मोड़े के तलाड गॉव निवासी नाथू सिंह की कन्या नारायणी देवी के साथ हुआ जिसे प्यार से आप ” नीला ” बुलाते थे । 1965 ई में इलाहाबाद के प्रसिद्द प्रकाशक श्रीनिवास अग्रवाल के निमंत्रण पर आप पुनः इलाहाबाद चले गए जहाँ अप्रैल 1992 तक रहे । 1992 से 2001 तक हल्द्वानी में विभिन्न स्थानों पर रहते हुए मानसिक बीमारी की दशा में 24 अप्रैल 2001 को मटियानी जी का स्वर्गवास दिल्ली में हो गया ।
शैलेश मटियानी का साहित्य संसार कुमाऊँ की हरी – भरी वादियों से लेकर मुंबई के विशाल समुद्र तट तक फैला हुआ है । इसमें जहाँ अल्मोड़ा , हल्द्वानी , रानीखेत की वादियों , संस्कृति , भाषा , रीति – रिवाज , लोक संसार तथा जीवन शैली के विभिन्न चित्र विद्यमान है वही दूसरी ओर दिल्ली और बम्बई महानगर की भागती – दौड़ती जिंदगी , का चित्र मौजूद है । बचपन में रामलीला में सीता , लक्ष्मण और राम का पाठ करते हुए लोक संगीत का जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह ” डंगरियों ‘ के साथ रहकर और पुष्ट हो गया जो उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है । चीनी आक्रमण के समय में जनता से आवाहन करते हुए ‘शिवहरि कैलास बटी ऐगेछ पुकार हो ‘ शीर्षक कुमाउनी कविता में यह लिखते है –
” शिवहरि कैलास बटी ऐगेछ पुकार हो
उठो, ज्वानो हुई जाओ लड़े हुँ तैयार हो

जो चीन हुणी हमूलं भाई- भाई कौछ रे
ओ हमरि छाती मणि बंदूक धरनोछ रे
हिमाल में घुसि गेछ दुश्मन की फौज रे
शांति- शांति कुनै – कुनै यस जुलम भौछ रे “

स्थानीय गीतों को भी मटियानी जी नें अपने कविता का विषय बनाया उनकी रचना” बेला हुई अबेर ” का यह गीत देखिए

” धिन – ध्यानकुटी – किम क्याना कुटी – हेर वेला हुई अवेर “

हिमालय की एक प्रमुख देना जल और जंगल भी है ऐसे में मटियानी जी ना सिर्फ अपने कथा साहित्य में इनका व्यापक वर्णन करते है अपितु साथ ही साथ अपने काव्य रचना में इसकी महिमा लिखते है, उनकी ‘ नदियाँ ‘ कविता की यह पक्तियां
” हर कोने में खूब नाम कर आयी है नदियाँ
सारे तीरथ घूम- घामकर आयी है नदियाँ

शिखरों से सागर तक ऐसी लेती चली हिलोर
चारों ओर अचानक भारी मच गया शोर!

इसी प्रकार उत्तरखंड के जंगलो का वर्णन करते हुए मटियानी जी अपनी कविता ‘ जंगल ‘ में लिखते है की –

” ऐसी कोई बात नहीं है खास जंगलों में
लेकिन फिर भी कुछ तो है खास इन जंगलों में “

यदि हम शैलेश मटियानी जी के कथा साहित्य का अध्ययन करें तो हम पाते है की – भूख , स्त्री और मौत शैलेश मटियानी के साहित्य के केंद्र बिंदु रहे है । बचपन में माता – पिता की मृत्यु , भूख की यंत्रणा और अभिभावक के अभाव का जो प्रभाव उन पर पड़ा वह इनके साहित्य में सर्वर्त्र दिखाई पड़ता है । चाहे वह किस्सा नर्मदा बेन गंगूबाई की सेठानी हो या चौथी मुट्ठी की मोतिमा मस्तानी या दो बूंद की रेशमा । बचपन में जानवरों के बीच रहने के कारण पशु इन्हें बहुत प्रिय रहे है जिन्हें इलाहाबाद के परिवेश पर रचित ” मैमूद ” कहानी में हम देख सकते है , मैमूद के कटने के बाद दुखी जद्दन अपने पति से कहती है ” आज ससुरा सवेरे- सवेरे से बार – बार कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़ कर धक्का देती थी , मैं क्या जानू की बदनसीब चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि ” अम्मा आज हम चले जायेंगे ” कुमाऊँ की लोक परम्परा से मटियानी जी का घनिष्ठ लगाव रहा है ” मुख सरोवर का हंस ” की भूमिका में मटियानी जी लिखते है – लोक कथा गायन की परंपरा तो मेरे पितरों ( दिवंगत और जीवित लोक गायकों ) की परंपरा है , मैं भी उसी परंपरा का पूत हूं , किशोरावस्था तक वन का ग्वाला , खेतों का घसियारा बना रहा तो अपने पितरों की इस परंपरा को यथावत किया करता था – वन , खेतों में ठौर – ठौर लोक कथाओं के छंदों को अपना कंठ दिया करता था “
51 वर्षो के अपने साहित्यिक जीवन में शैलेश मटियानी ने 30 उपन्यास , 28 कहानी संग्रह , 9 लोक कथा संग्रह , 16 बाल कथा संग्रह , 1 एकांकी संग्रह तथा 13 निबंध संग्रह का लेखन कार्य किया , इसके अतिरिक्त ‘ विकल्प ‘ और ‘ जनपक्ष ‘ नामक दो पत्रों का संपादन और प्रकाशन कार्य भी किया । इतनी प्रचुर मात्रा में रचना कार्य करने के बाद भी शैलेश मटियानी जी को साहित्य में वह स्थान नही मिला जिसके वे हकदार थे , इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण शैलेश जी का किसी लेखक संगठन का सदस्य ना होना भी रहा । शैलेश जी लेखक संगठनों को ” गिरोह ” की संज्ञा दिया करते थे जिसके कारण प्रायः सभी लेखक संघो ने इनसे दूरी बनाए रखी और इनका मौन बहिष्कार किया ।
कागज की खेती करने वाला यह खेतिहर जीवन के अंत तक लेखक की अस्मिता और स्वत्रंतता के लिए संघर्ष करता रहा । जीवन के अंतिम समय में भी दो- चार बड़ी कहानियां , एक बड़ा उपन्यास और आत्मकथा लिखने का सपना संजोए रहा । अगर शैलेश जी को इसके लिए अवकाश मिला होता तो निश्चय ही भारतीय साहित्य की यह अमूल्य निधि होती । ऐसा महान साहित्यकार आज किस कदर देश में ही नहीं अपितु उत्तराखंड राज्य में भी उपेक्षित है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकतें है की उनकी पत्नी श्रीमती लीला के लिए सरकार द्वारा किसी निश्चित पेंशन की व्यवस्था नहीं हो पायी है, ना ही उत्तराखंड के इस लाल का आज तक एक भी स्मारक बन पाया जबकि होना यह था कि मटियानी के साहित्य का अध्ययन करने के लिए एक ” मटियानी साहित्य पीठ ” और उनके नाम से साहित्यिक पुरस्कार के साथ- साथ एक वृहद पुस्तकालय स्थापित किया जाता ताकि आने वाले समय में हिंदी व उत्तराखंड की संस्कृति के अध्येता व व साहित्य प्रेमी शैलेश मटियानी के साहित्य का अध्ययन कर पाते । अरविन्द कुमार ( मौर्य ) अनंत
असिस्टेंट प्रोफेसर व मटियानी साहित्य अध्येता
कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
Mob- 9936453665

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