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विश्व इतिहास में धर्म, मानवीय मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांत की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राण की आहुति दे दी.।


विश्व इतिहास में धर्म, मानवीय मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांत की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राण की आहुति दे दी.।

    इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था 
    गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। ये गुरु हरगोविन्द जी के पाँचवें पुत्र थे। आठवें गुरु इनके पोते 'हरिकृष्ण राय' जी की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण जनमत द्वारा ये नवम गुरु बनाए गए। इन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और ये वहीं रहने लगे थे। उनका बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुग़लों के हमले के ख़िलाफ़ हुए युद्ध में उन्होंने वीरता का परिचय दिया।
उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग़ बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया। युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से गुरु तेग़ बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका का मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेग़ बहादुर जी ने एकांत में लगातार 20 वर्ष तक 'बाबा बकाला' नामक स्थान पर साधना की। आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए 'बाबा बकाले' का निर्देश दिया।
गुरु जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा। रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए। उन्होंने परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने।
गुरु तेगबहादुर जी सिखों के नौवें गुरु माने जाते हैं। औरंगज़ेब के शासन काल की बात है। औरंगज़ेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर रोज़ गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगज़ेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन किन श्लोकों का अर्थ राजा से सामने नहीं करना था।
पंडित के बेटे ने जाकर औरंगज़ेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। गीता का पूरा अर्थ सुनकर औरंगज़ेब को यह ज्ञान हो गया कि प्रत्येक धर्म अपने आपमें महान है किन्तु औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि वह अपने के धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा सहन नहीं थी।
जुल्म से त्रस्त कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार ‍इस्लाम स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है, यातनाएं दी जा रही हैं। गुरु चिंतातुर हो समाधान पर विचार कर रहे थे तो उनके नौ वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम(गोविन्द सिंह ) ने उनकी चिंता का कारण पूछा ,पिता ने उनको समस्त परिस्थिति से अवगत कराया और कहा इनको बचने का उपाय एक ही है कि मुझको प्राणघातक अत्याचार सहते हुए प्राणों का बलिदान करना होगा।
वीर पिता की वीर संतान के मुख पर कोई भय नहीं था कि मेरे पिता को अपना जीवन गंवाना होगा। उपस्थित लोगों द्वारा उनको बताने पर कि आपके पिता के बलिदान से आप अनाथ हो जाएंगे और आपकी मां विधवा तो बाल प्रीतम ने उत्तर दियाः “यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएँ विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।”
अबोध बालक का ऐसा उत्तर सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गए। तत्पश्चात गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब से कह ‍दें कि यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु जी को बन्दी बनाए जाने के लिए आदेश दे दिए।
गुरुजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि तुम जबरदस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए। औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो गया। उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर का शीश काटने का हुक्म दिया और गुरु तेगबहादुर ने हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
गुरु तेगबहादुर की याद में उनके शहीदी स्थल पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा शीश गंज साहिब है। गुरु तेगबहादुर जी की बहुत सारी रचनाएं गुरु ग्रंथ साहिब के महला 9 में संग्रहित हैं।। गुरुद्वारे के निकट लाल किला, फिरोज शाह कोटला और जामा मस्जिद भी अन्‍य आकर्षण हैं। गुरु तेगबहादुर जी की शहीदी के बाद उनके बेटे गुरु गोबिन्द राय को गुरु गद्दी पर बिठाया गया। जो सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी बने।
श्री कीरतपुर साहिब जी पहुँचकर भाई जैता जी से स्वयँ गोबिन्द राय जी ने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश प्राप्त किया और भाई जैता जो रँगरेटा कबीले के साथ सम्बन्धित थे। उनको अपने आलिंगन में लिया और वरदान दिया ‘‘रँगरेटा गुरु का बेटा’’। विचार हुआ कि गुरुदेव जी के शीश का अन्तिम सँस्कार कहां किया जाए।
सहनशीलता , कोमलता और सौम्यता की मिसाल के साथ साथ गुरू तेग बहादुर जी ने हमेशा यही संदेश दिया कि किसी भी इंसान को न तो डराना चाहिए और न ही डरना चाहिए । इसी की मिसाल दी गुरू तेग बहादुर जी ने बलिदान देकर. जिसके कारण उन्हें हिन्द की चादर या भारत की ढाल भी कहा जाता है उन्होंने दूसरों को बचाने के लिए अपनी कुर्बानी दी। गुरू तेग बहादुर जी को अगर अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरूष कह लिया जाए तो कहना जऱा भी गलत न होगा पूरा गुरू चमत्कार या करमातें नहीं दिखाता.
वो उस अकालपुरख की रजा में रहता है और अपने सेवकों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है. गुरू तेग बहादुर जी ने धर्म की खातिर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया. ऐसा कोई संत परमेश्वर ही कर सकता है जिसने अपने पर में निज को पा लिया हो. अर्थात्  अपने हृदय में परमात्मा को पा लिया  उसके भेद को तो कोई बिरला ही समझ सकता है आज जरूरत गुरू घर से जुड़ने की इसलिए तो गुरबाणी में कही गई बातों को अमली जामा पहनाने ।
संसार को ऐसे बलिदानियों से प्रेरणा मिलती है, जिन्होंने जान तो दे दी, परंतु सत्य का त्याग नहीं किया। नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी भी ऐसे ही बलिदानी थे। गुरु जी ने स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के अधिकारों एवं विश्वासों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। अपनी आस्था के लिए बलिदान देने वालों के उदाहरणों से तो इतिहास भरा हुआ है, परंतु किसी दूसरे की आस्था की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक मात्र मिशाल है

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