उत्तराखण्ड
पटना के गुरमीत दिन में अपना कपड़ों का व्यापार करते हैं रात में मरीजों की सेवा सरकारी अस्पतालों में अपनी सेवा देते हैं।
पटना के सरदार गुरमीत सिंह मौजूदा कपड़ों की अपनी पुश्तैनी दुकान संभालते हैं।लेकिन रात होते ही वे 90 साल पुराने और 1760 बेड वाले सरकारी पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पीटल के मरीज़ों के लिए मसीहा बन जाते हैं।
बीते 20 साल से गुरमीत सिंह हर रात लावारिस मरीज़ों को देखने के लिए पहुंचते हैं। वे उनके लिए भोजन और दवाएं लिए आते हैं।
भाई गुरमीत सिंह पिछले 13 साल से कभी पटना से बाहर नहीं निकले, छुट्टियां नहीं लीं।वे इन लावारिसों को उनके हाल पर नहीं छोड़ना चाहते।
भाई गुरमीत सिंह अपने पांच भाई के साथ अस्पताल के सामने ही एक बहुमंज़िला इमारत में रहते हैं. सिंह हर रात नौ बजे अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलते हैं और अस्पताल की ओर चल देते हैं.
वे अपनी जेब में मरीज़ों की दवाओं के लिए कुछ पैसे रखना नहीं भूलते।
पांचों भाई अपनी मासिक आमदनी का 10 फ़ीसदी हिस्सा इस मदद में जमा करते हैं. इस अस्पताल में इलाज तो मुफ़्त में होता है, लेकिन दवाएं ख़रीदनी पड़ती है
बीते 20 साल से गुरमीत सिंह हर रात लावारिस मरीज़ों को देखने के लिए पहुंचते हैं। वे उनके लिए भोजन और दवाएं लिए आते हैं।
भाई गुरमीत सिंह पिछले 13 साल से कभी पटना से बाहर नहीं निकले, छुट्टियां नहीं लीं।वे इन लावारिसों को उनके हाल पर नहीं छोड़ना चाहते।
भाई गुरमीत सिंह अपने पांच भाई के साथ अस्पताल के सामने ही एक बहुमंज़िला इमारत में रहते हैं. सिंह हर रात नौ बजे अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलते हैं और अस्पताल की ओर चल देते हैं.
वे अपनी जेब में मरीज़ों की दवाओं के लिए कुछ पैसे रखना नहीं भूलते।
पांचों भाई अपनी मासिक आमदनी का 10 फ़ीसदी हिस्सा इस मदद में जमा करते हैं. इस अस्पताल में इलाज तो मुफ़्त में होता है, लेकिन दवाएं ख़रीदनी पड़ती हैं।
पटना के सरदार गुरमीत सिंह मौजूदा कपड़ों की अपनी पुश्तैनी दुकान संभालते हैं।लेकिन
बीते 20 साल से गुरमीत सिंह हर रात लावारिस मरीज़ों को देखने के लिए पहुंचते हैं। वे उनके लिए भोजन और दवाएं लिए आते हैं।
भाई गुरमीत सिंह पिछले 13 साल से कभी पटना से बाहर नहीं निकले, छुट्टियां नहीं लीं।वे इन लावारिसों को उनके हाल पर नहीं छोड़ना चाहते।
भाई गुरमीत सिंह अपने पांच भाई के साथ अस्पताल के सामने ही एक बहुमंज़िला इमारत में रहते हैं. सिंह हर रात नौ बजे अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलते हैं और अस्पताल की ओर चल देते हैं.
वे अपनी जेब में मरीज़ों की दवाओं के लिए कुछ पैसे रखना नहीं भूलते।
पांचों भाई अपनी मासिक आमदनी का 10 फ़ीसदी हिस्सा इस मदद में जमा करते हैं. इस अस्पताल में इलाज तो मुफ़्त में होता है, लेकिन दवाएं ख़रीदनी पड़ती हैं।