Connect with us

उत्तराखण्ड

शीतकाल के पौष मास के प्रथम रविवार से गणपति की वंदना से बैठकी होली का आगाज होता है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है

देवभूमि उत्तराखंड के हर क्षेत्र में डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय से शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा से चली आ रही है। यहां शीतकाल के पौष मास के प्रथम रविवार से गणपति की वंदना से बैठकी होली का आगाज होता है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली टीके तक चलती है। पहाड़ में बैठकी होली गायन की परम्परा को प्राचीन काल से अब तक लोक संस्कृति प्रेमियों ने कायम रखा है। कड़ाके की ठंड में भी होली गीतों के रसिक इस बैठकी होली गायन में देर रात्रि तक उत्साहपूर्वक भागीदारी करते हैं।
बहुचर्चित पुस्तक कुमाऊँ का होली गायन: लोक एवं शास्त्र के लेखक, राजकीय महाविद्यालय टनकपुर चंपावत के संगीत विभागाध्यक्ष डॉ पंकज उप्रेती से एमबीपीजी के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ संतोष मिश्र की बातचीत
डॉ. सन्तोष मिश्र- होली का पर्व पूरे विश्व में मनाया जाता है और विशेषकर भारत के ब्रज क्षेत्र में। यहां से आनंद पूरे देश में फैलता है। उत्तराखंड की होली किस प्रकार अलग है और कितनी प्रभावित है ?
डॉ. पंकज उप्रेती – पूरी दुनिया में मौसम के अनुसार हमारे लोक में जो रस फूटते हैं, उन्हीं में से होली भी मनाई जाती है। इसमें अपने प्रेम को प्रकट करते हैं, मनोरंजन करते हैं। क्योंकि ब्रज ऐसा क्षेत्र है जहां राधा कृष्ण को लेकर बहुत सी रचनाएं हैं। नृत्य व गायन के रूप में, फूलों की होली, लट्ठमार होली आदि रूपों में ब्रज क्षेत्र को पूरी दुनिया में जाना जाता है। इसमें हमारे पहाड़ यानी उत्तराखंड में इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। क्योंकि यहां रास मंडलियांआती रही हैं, दरभंगा कन्नौज सहित विभिन्न राज्यों से संपर्क रहा है। कैलास मानसरोवर का यात्रा पथ भी उत्तराखंड ही है। इसलिए लोगों का यहां आना-जाना शुरू से रहा है। ऐसे में संगीत का आदान-प्रदान तो होना ही था। जिसको हम पहाड़ की होली कहते हैं, ठंड में मनोरंजन का साधन भी था। इसी कारण से तीन चार महीने तक इसका गायन होता है और आज भी परंपरा के रूप में हमारे आपके बीच है।
संतोष — तो क्या हम यह कहें कि राजा रजवाड़ों से होते हुए जो परंपरा आज तक चली आ रही है। होली गायन में ब्रज, भोजपुरी, अवधी के गीतों को हूबहू लिया गया है या कुमाऊनी भाषा की अपनी रचनाएं भी शामिल हैं ?
पंकज — क्योंकि जब एक संस्कृति एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती है तो एक व्यक्ति के साथ उसके पूरे संस्कार भी साथ -साथ चलते हैं। पहाड़ में तमाम स्थानों से लोग आकर बसे, ऐसे में उनके साथ उनकी संस्कृति भी आई। शैली तो पर्वतीय हो गई, परन्तु इन गीतों की भाषा में कुमाऊंनी गढ़वाली या अन्य स्थानीय बोली के शब्द बहुत कम हैं। कुछ गीत या कुछ शब्द रूप में दिखते हैं।

सन्तोष — खड़ी और बैठकी दो रूपों में होली होती है। खड़ी और बैठकी होली में किसका प्रभाव लोक में ज्यादा है और मूल अंतर क्या है दोनों में ?
पंकज — खड़ी होली के रूप में देखें तो पूरी दुनिया में सामूहिकता का ऐसा उत्साह देखा जाता है।खड़ी होली सामूहिकता का प्रतीक है। दुनिया के तमाम देशों में सामूहिकता के ऐसे नृत्य गीत हैं, जिसमें गांव के गांव वृत्ताकार, अर्धवृत्ताकार रूप में उमंगित होकर नाचते-गाते हैं। जबकि बैठकी यानी नागर होली साधन संपन्न लोगों के यहां विशेष रूप से होती थी। बैठकी में लगने वाले स्वर शास्त्रीयता ओर जाते हैं जबकि खड़ी होली में अवकाश के अवसर में खड़े होकर, उमंगित होकर गाने में ज्यादा है। लोगों की उमंग ढोल-मंजीरे के साथ और बढ़ती जाती है तथा खड़े स्वर निकलने लगते हैं।
सन्तोष– आपने पीएचडी के बाद डीलिट भी किया और अभी भी शोध कार्य संगीत में जारी है। आपकी एक पुस्तक है – ‘कुमाऊं का होली गायन : लोक एवं शास्त्र’। इस पुस्तक के बारे में विशेष क्या है कि जिससे लोक और शास्त्र स्पष्ट हो सके ?
पंकज– शास्त्र की जननी लोक ही है और आम जनमानस अपनी उमंग के लिए छोटी-छोटी रचनाओं, गीतों के माध्यम से आनन्दित होता है। इस पुस्तक में होली की ऐसी रचनाएं हैं, जिसमें लोक, शास्त्र दोनों समाहित है। साथ ही पहाड़ की होली के इतिहास को भी दर्ज किया गया है। दूसरी ओर शास्त्रीय विधान से जुड़े लोग, जिज्ञासु जन, शोधार्थी हारमोनियम पर इन गीतों को साध सकते हैं, इसमें स्वरलिपि द्वारा भी समझाने की कोशिश की गई है। पुस्तक में महिलाओं की होली, बैठकी होली और खड़ी होली के रूप में वर्गीकरण करते हुए इसमें गीत दिए गए हैं। लोक एवं शास्त्र को समानांतर इसमें समझाया गया है।
सन्तोष- अब अंत में एक होली सुनते हैं–
पंकज — सबको मुबारक होरी
फागुन रितु शुभ अलबेली
घर घर अंगना रंग बनो है
खुशियों की रंगरेली
मन रंग लो प्रभु के रंग में
रंग लो तन की चोली
ऐसी खेलो होरी

कुमाऊं का होली गायन : लोक एवं शास्त्र पुस्तक प्राप्त करने के लिए डॉ. पंकज उप्रेती से उनके मोबाइल नम्बर 9411301014 पर बात की जा सकती है।

Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad
[masterslider id="1"]
Continue Reading
You may also like...
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in उत्तराखण्ड

Trending News

Follow Facebook Page