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उत्तराखण्ड

नव रात्रि व्रत से होते हैं सभी मनोरथ पूर्ण -अखिलेश चंद चमोला

पत्रकार अजय उप्रेती ,लालकुआं
हमारी सँस्कृति सभी संस्कृतियों में अनुपम तथा बेजोड़ मानी जाती है। इस अद्भुत सँस्कृति के कारण हमारे भारत वर्ष की गरिमा जगत गुरु के रूप में रही। यहाँ नारी शक्ति को सर्वोपरि महत्व दिया जाता रहा है। इसी आधार पर मनुस्मृति में इस सत्यता को इस प्रकार से उद्घघटित किया गया है -“यत्र नार्येस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पुज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:
अर्थात जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात् सत्कार होता है उस कुल में दिव्य गुण,दिव्य भोग और उत्तम सन्तानेँ होती हैं ,जिस कुल में स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, वहाँ सब प्रकार की क्रिया निष्फल होती है।
जब हम इतिहास के पन्नोँ पर दृष्टि डालते हैँ तो नारी की गरिमा प्राचीन काल से ही देखने को मिलती है। प्राचीन काल में गार्गी का स्थान सर्वोपरि था, जिसने अपनी बुद्धि और ज्ञान से याज्ञवल्क्य ऋषि को चुनौती देकर पराजित किया था। पन्ना धाय ने मेवाड की रक्षा के लिए अपने पुत्र के प्राणोँ की आहुति दे डाली, नारी मनुष्य के जीवन में क्ई रुपोँ में अवतरित होती है। इसी कारण हमारी सँस्कृति मेँ नारी को देवी का रुप माना जाता है। इसका साक्षात प्रमाण नवरात्रि का त्योहार है। नवरात्रि पूजा के आठवेँ नौवेँ दिन नौ कुंवारी कन्याओँ का पूजन कर उन्हें भोजन कराने व यथोचित उपहार देने की परम्परा रही है। जीवन के विभिन्न रुपोँ में नारी ही सच्ची मार्गदर्शिका होती है ।माँ ही जीवन का आधार तथा केन्द्र बिन्दु होती है। माँ के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। माँ बच्चे को ९ मास गर्भ में धारण करके अनेक प्रकार का कष्ट सहन करती है। इसी कारण माँ को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। जिसका स्मरण करने मात्र से ही सभी प्रकार के दुखोँ से मुक्ति मिल जाती है। यही कारण है कि हमारे यहाँ गंगा माता, गो माता, पृथ्वी माता कहकर उस निष्ठा को बड़ी श्रद्धा के साथ सम्बोधित किया जाता है। नवरात्रि का त्योहार इसी शक्ति का प्रतीक है।
नवरात्रि का अर्थ है नौ दिन और नौ रात्रि तक एकाग्र चित्त होकर माँ की आराधना में लीन होकर सम्पूर्ण भक्ति भाव से जप-तप करना,पूरे वर्ष मेँ चैत, आषाढ़, आश्विन एवँ माघ मास में शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिन माँ दुर्गा की पूजा के लिए परम शुभ माने जाते हैं। इन चारों महीनोँ मेँ चैत माह बसन्तीय नवरात्रे एवं आश्विन माह में शारदीय नवरात्रे प्रमुख व विशिष्ट माने जाते हैँ। आषाढ़ एवँ माघ मास के नवरात्रे गुप्त नवरात्रे के नाम से जाने जाते हैं। इन सभी नवरात्रोँ मेँ माँ भगवती की पूजा अर्चना दुर्गा सप्तशती के पाठोँ से की जाती है।
ऋग्वेद में कहा गया है -माँ भगवती ही महत्वपूर्ण शक्ति है। उन्हीं से सम्पूर्ण विश्व का सँचालन होता है। इनके अतिरिक्त कोई दूसरी शक्ति नही है।
माँ भगवती के नवरात्रोँ मेँ माँ के नौ रुपोँ की पूजा अर्चना विशेष रुप से की जाती है। माँ के नौ रुपोँ में शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघन्टा, कुष्मान्डा,स्कन्दमाता,कात्यायनी,कालरात्रि,दुर्गा माँ, सिद्धि दात्री आदि रुपोँ के नाम का उच्चारण तथा पूजा अर्चना की जाती है।
घट स्थापना का शुभ मुहूर्त सूर्योदय से लेकर १२बजकर ३०मिनट तक है। इस वर्ष नव संवत्सर का प्रादुर्भाव २०७९ शनिवार २अप्रैल से शुरू हो रहा है। नव संवत्सर का नाम नल है।शनिदेवता की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी।
। यानी इस वर्ष शनि देव महाराजा और वृहस्पति मन्त्री के पद पर आसीन रहेँगे। नव वर्ष की शुरुआत में मंगल और राहु केतु की स्थिति उच्च राशि में रहेगी। नव वर्ष सूर्योदय की कुन्डली मेँ शनि मँगल की युति धन ऐश्वर्य लाभ व प्रभावकारी योग का सँकैत देता है। इस स्थिति में भारत वर्ष की स्थिति अन्य देशों के लिए प्रेरणा दायिनी प्रभाव कारी रहेगी। इस तरह के योग से यह नूतन वर्ष मिथुन तुला धनु राशि वालोँ के विशिष्ट रहेगा।अन्य राशियों के लिए आमूल चूल परिवर्तन का समय रहेगा।
ज्योतिषीय गणना के अनुसार माँ इस वर्ष घोड़े मेँ सवार होकर भक्तोँ के घर मेँ शुभागमन करेगी, और भैँषे मेँ सवार होकर विदा होगी। इस तरह की स्थिति अच्छी नहीं मानी जाती है ।लेकिन सकारात्मक चिन्तन यह दर्शाता है कि माँ यह सँकेत दे रही है कि जीवन मेँ भोग विलास व भौतिक चकाचौंध से किसी तरह का लाभ होने वाला नहीं, मृत्यु जीवन की सत्यता है।इस सत्यता का बोध करते हुए सच्ची भक्ति ही जीवन मेँ सफलता लाती है। माँ भगवती का स्वरूप बड़ा ही दयालू माना जाता है। सामान्य भक्ति व नाम के उच्चारण करने मात्र से भक्तोँ पर विशिष्ट कृपा बरसने लग जाती है। इस पुनीत पर्व पर छोटी छोटी कन्याओँ को माँ भगवती का रुप मान कर उन्हेँ श्रद्धा से भोजन व दक्षिणा देने से माँ बहुत जल्दी खुश होकर अपने भक्तोँ के सारे सँकटो का हरण कर देती है ।जीवन के प्रति नवीन उत्साह का सन्चार पैदा होता है। सभी बिघ्न बाधायेँ दूर होकर भक्तोँ के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
लेखक- अखिलेश चन्द्र चमोला। माँ काली उपासक। अन्तराष्टीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित।

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